सोमवार, मार्च 07, 2016

काम नही लोगों की सोच छोटी होती है

8 मार्च महिला दिवस पर विशेष लेख
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निकहत प्रवीन
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कभी भगवान मेरे सपने में आएं और पुछे की क्या वरदान दुँ तो मै ज्ञान का वरदान मागुँगी, ये वाक्य है राजधानी दिल्ली के आजादपुर में रहने वाली सुनीता कुमारी के, जिन्होंने तीसरी कक्षा के बाद आगे की पढ़ाई नही की लेकिन अब जब उनकी उम्र तकरीबन 34 साल हो गई है और दिल्ली शहर में वो रोज  अन्य लड़कियों को नौकरी पर जाते हुए देखती हैं तो उन्हे अहसास होता है कि काश बचपन में मैंने अपनी पढ़ाई पर ठीक तरह से ध्यान दिया होता तो आज लोगों के बीच मेरी भी पहचान नौकरी करने वाली औऱ लड़कियों की तरह होती न की काम करने वाली की ।
सुनीता वर्ष 2002 मे अपने पति और तीन बेटियों के साथ इस शहर मे रोजगार की तलाश मे आई क्योंकि गाँव में होने वाली खेती से परिवार का खर्च पुरा नही हो पा रहा था कारणवश सुनीता और उसके परिवार ने दिल्ली शहर का रुख किया और शहर में एक अच्छा जीवन जीने के लिए सुनीता ने किस तरह अपने पति का साथ दिया इस बारे मे सुनीता विस्तार से बताती हैं “ मै कानपुर जिला उन्नाव के गांव चंदरी खेड़ा की रहने वाली हूँ परिवार में बस मैं और मेरा भाई है माँ – बाप पढ़े लिखे नही थे पर उन्होंने हम दोनो भाई बहनो को जिंदगी की सारी सुख सुविधाएँ देने के साथ साथ पढ़ने का भी समान अवसर दिया लेकिन मैंने हमेशा पढ़ाई को हल्के में लिया और किसी तरह जब तीसरी कक्षा पास कर गई तो आगे पढ़ाई नही की तब खेल कुद और घर के कामों में ही मेरा मन लगता था 16 साल की थी जब मेरी शादी हुई और शादी के ठीक एक साल बाद पहली बेटी पुष्पा का जन्म हुआ ।
वो सही समय याद करने की कोशिश करते हुए कहती है “ ठीक तरह से याद नही पर इतना याद है कि शादी के 6 साल के भीतर मैं तीन बेटियों की माँ बन चुकी थी पति की खेती बाड़ी से होने वाली आमदनी से जब घर खर्च चलाना और बच्चों की परवरिश करना मुशकिल लगने लगा तो अपनी जेठानी के कहने पर दिल्ली आने का फैसला किया । यहाँ आकर भी लगा कि सिर्फ पति की कमाई से घर नही चल पाएगा तो मैंने काम करने का फैसला किया हालांकि मैं जानती थी कि ज्यादा पढ़ी लिखी न होने के कारण मुझे कोई अच्छी नौकरी तो मिल नही पाएगी इसलिए अपनी जेठानी की मदद से पहले दो घरो मे खाना बनाने और साफ सफाई का काम शुरु किया जिससे 700 रु महिने के कमा लेती थी ज्यादा कुछ तो नही पर इससे मेरे घर का किराया निकल जाता था पति ने भी 2000 रु महिने पर एक कोचिंग मे चपरासी की नौकरी शुरु कर दी थी । इस समय वह किराने की दुकान पे काम करते हैं और लोगो के आर्डर पर घर जाकर सामान भी पहुँचाते हैं, मैं अब भी काम कर रही हूँ फर्क सिर्फ इतना है कि पहले कम पैसे कमाती थी क्योंकि कम घरों मे काम करती थी औऱ अब ज्यादा घरों मे काम करना पड़ता हैं न करु तो इस महंगाई मे घर कैसे चलेगा बड़ी बेटी की तो शादी कर दी लेकिन बाकी दोनो बेटियाँ सरकारी स्कूल में पढ़ाई कर रही हैं हाँ ये अच्छी बात है कि वो दोनो मेरे जैसी नही बल्कि मन लगाकर पढ़ रही है इसलिए मुझे भी उनके लिए मेहनत करना अच्छा लगता है वो जहाँ तक पढ़ना चाहें जरुर पढ़ाऊंगी बेटियों के सपने पुरे हो गए तो समझुंगी मेरी तपस्या पुरी हुई। माँ की इस तपस्या को बेटियाँ पुरा करना चाहती हैं या नहीं इस बारे मे सुनीता की सबसे छोटी बेटी शालिनी कहती है“ हम जानते हैं माँ हमारे लिए ही सुबह से लेकर शाम तक लोगों के घरों में काम करती हैं और हमे सारी सुख सुविधाएँ देने मे लगी है, ताकि भविष्य में कभी हमें ऐसा काम न करना पड़े शायद इसलिए माँ बार बार हमें मन लगाकर पढ़ने को कहती हैं मेरा भी सपना है कि पढ़ लिख कर या तो सरकारी नौकरी करु या अच्छी फैशन डिजाइनर बनुँ क्योंकि मुझे सिलाई करना बहुत पसंद है। बेटी के सपने और सुनीता की मेहनत से पति खुश है या नही इस सवाल के जवाब मे सुनीता के पति कहते है "जिसे ऐसी बहादुर पत्नी और बेटियाँ मिली हो वो खुश कैसे नही होगा हाँ शुरु -शुरु मे थोड़ा अफसोस होता था कि मेरा कोई बेटा नही है तो बुढ़ापा कैसे कटेगा लेकिन मेरी पत्नी ने जिस तरह अब तक मेरा साथ दिया औऱ कम पढ़ी लिखी होने के बाद भी  बेटियों को जो संस्कार दिए है उसपर मुझे गर्व है ये और बात है कि कुछ लोग मुझे इस बात का ताना देते हैं कि मेरी पत्नी लोगों के घरों में काम करती है उनके जुठे बर्तन साफ करती है जबकि औरों की पत्नियाँ अच्छे दफ्तरों में जाती हैं तो मैं ऐसे लोगों को बस एक ही जवाब देता हूँ कि काम नही लोगों की सोच छोटी होती है। मुझे हमेशा अपनी पत्नी पे गर्व था और रहेगा"।
सुनीता के पति की ये बाते उन तमाम लोगों के लिए एक सीख है जो कम पढ़ी लिखी महिलाओं को समाज का एक अलग हिस्सा समझते हैं, महिला दिवस के अवसर पर सुनीता की मेहनत औऱ उसकी पति की सोंच को हम सबका सलाम ।

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