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मंगलवार, जनवरी 17, 2017

भाषा और अभिव्यक्ति पर पाबंदी

महजीं
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धीरे-धीरे भाषा और अभिव्यक्ति पर लगता जा रहा है अंकुश और लोगों को सेल्फी से फुर्सत नहीं है।

"नाम गुम जाएगा, चेहरा ये बदल जाएगा, मेरी आवाज़ ही मेरी पहचान है, गर याद रहे तुम्हें "

अमेरिका विश्व की सबसे बड़ी महाशक्ति के रूप में है। लेकिन वो किन बुनियादी ढांचों पर शक्तिशाली बना है राज़ किसी से छुपा नहीं। भाषा, समुदाय, धर्म, सभ्यता, संस्कृति, मनुष्यता, सभी में परिवर्तन किया, भिड़ाया, द्वन्द्व की स्थितियां उत्पन्न की अपने लाभ के लिए। अपना साम्राज्यवाद विस्तृत करने के लिए दमन किया, दूसरे देशों के संसाधनों को लूट रहा है, आज तक। अन्य देशों के लोग उसकी दमनकारी और आर्थिक नीतियों से खुश नहीं हैं, अमेरिका के ही लोग जो निम्न वर्ग से हैं ज़मीन से जुड़े हुए हैं वो भी उसकी थोपी हुई नीतियों से परेशान हैं। अमेरिका अपनी बनाई गई नीतियों को दूसरों पर सिर्फ थोपता आया है, कभी ख़ुद अम्ल नहीं किया उनपर, विरोध करने वालों को भी दबाता आया है, जो उसके ख़िलाफ़ बोलने की कोशिश करेगा उसकी ज़ुबान बंद कर दी गई, लेकिन क्या हुआ भाषा अभिव्यक्ति पर अंकुश लगाने का अंजाम? सबको मालूम है । गूंगा आदमी भी बिना ज़ुबान से इक़रार किये ख़ुदा पर ईमान लाता है, रखता है, अपनी अभिव्यक्ति को हाथ पैरों आँखों से ज़हिर करता है। और समझने वाले समझ भी जाते हैं । अमेरिका ने जब अभिव्यक्ति पर प्रतिबंध लगाया तब भी यही हुआ था, लोगों ने हाथ पैरों जूतों से अभिव्यक्त करना शुरू कर दिया। अब भारत भी अगर भाषा अभिव्यक्ति की सीमाओं को सीमित करने की कोशिश कर रहा है, वर्तमान भारत की संघी सरकार भी अब इसी रास्ते पर चल निकली है।  असमानताओं के आधार पर, दमन शोषण के आधार पर शक्तिशाली बनने का सपना देख रहा है, निम्न, वर्ग, मध्यवर्ग, किसान ग़रीब मज़दूर महिलाएं अब चर्चा का विषय नहीं रही, और जो चर्चा ज़ारी रखना चाहते हैं, उनके मुँह बंद करने की कोशिश की जा रही हैं, धिरे - धिरे तरह - तरह के परोपेगेंडा के द्वारा अपनी नीतियों को थोपा जा रहा है, ऊपरी सतह पर कुछ और दिखाया जा रहा है, और अन्दरूनी मुआमले कुछ और तय किये जा रहे हैं।वर्तमान सरकार द्वारा पूंजीपतियों की भाषा को फरोग़ दिया रहा हैं और ग़रीब, मज़दूर, मज़लूम, तलबा की भाषा को दबाने की कोशिश की जा रही है । जनता अब इतनी बेवकूफ भी नहीं है, सोशल मीडिया एक अच्छा खासा आईना है। पोल खोलकर रख देता है सबके सामने। इतिहास गवाह है जब जब ज़ुंबा पर क़ुफ्ल (ताला ) लगाने की कोशिश की गई शैलाब आया इनक़लाब आया।

जूता" लैदर का हो, या, रेक्सीन, कपड़े, स्पोर्ट्स, लेडीज, जेन्टस, जब तक शौरूम में है, इसकी पेहचान, बाटा, ऐक्शन, ऐडीडाज है.. फुटपाथ पर है, तो ये, 100 का, 200,300,400,का है बाबू जी... और, जब पांव में है, तो, उच्च वर्ग, मध्यवर्ग, निम्नवर्ग है.. और, जब, मुँह पर पड़ता है न  भईया... तब, इसके कमाल, देखने लायक हैं... सीधा, अख़बार में, टीवी में, पहुंचता है... जूता मारना, और.. जूता खाना, बड़ा दम चाहिए, जूता खाने वाला भी, मामूली नहीं.. और, जूता, मारने वाला भी मामूली नहीं.. जैदी ने, मारा था, बुश के मुँह पर जूता... दस साल, ज़ेल काटकर आया बाहर.... कितना, निडर था वो आदमी, जिसने बुश के मुँह पर जूता मारा... विश्व की सबसे बड़ी महाशक्ति के ऊपर जूता मारा....  केजरीवाल जी भी जूते का स्वाद चख़ चूके हैं... और, आजकल तो, संसद की बहस भी, जूते, चप्पलों से चलती है... किसी ने लिखा था, निबंध, मुझे याद नहीं अब, साहित्यकार की रचना है , 'प्रेमचंद के फटे जूते'  जूता आदमी की, औकात भी जाहिर करता है.. जूते पर फिल्म बनी, शकालाका बूम बूम, जूते के माध्यम से, देश के हालात, गरीबी, बेरोजगारी , गैरबराबरी, आतंक का हिस्सा बनता आदमी, सबकुछ ब्यां किये हैं। कभी-कभार अभिव्यक्ति का माध्यम भी बनाना पड़ता है, जब ज़ोर - ओ - ज़ुल्म बढ़ जाता है।
सारे रास्ते बंद किये जाते हैं तो दूसरा चुन लिया जाता है । अभिव्यक्ति के लिए जब शब्दों के माध्यम बंद किये जाएंगे तब मज़बूरी में स्पर्श के माध्यम चुने जाएंगे। और ऐसी स्थितियों के लिए सरकार जिम्मेदार होगी। क्योंकि लोगों में अब सब्र (संयम )  बर्दाश्त नहीं। ऐसी स्थिति को उत्पन्न होने से रोकने के लिए, बेहतर इसी में है कि सरकार को अपने विचारों, फैसलों, नीतियों में तर्मीम(बदलाव ) करे।

मेहजबीं