गुरुवार, जुलाई 27, 2023

भारत में आरक्षण खत्म करने की मांग क्यों होती रहती है❓

ℹ️आरक्षण ℹ️
 #भाग_1
भारत में #आरक्षण खत्म करने की मांग क्यों होती रहती है❓
इस पोस्ट को पढ़ने के बाद आरक्षण से संबंधित लगभग सभी #पूर्वाग्रहों और #आक्षेपों की सत्यता समझने में आपको मदद मिलेगी।  

पहले आरक्षण की #पृष्ठभूमि, #आवश्यकता, #रूप, और #प्रकार को थोड़ा समझने का प्रयास करते हैं:➖

 🌾#भारत में आरक्षण की पृष्ठभूमि -
 गुलाम भारत में दलितों के पास किसी भी प्रकार का राजनैतिक, आर्थिक,सामाजिक अधिकार नहीं था। पिछड़े और दलित गुलामों के भी गुलाम थे। महाराष्ट्र में कोल्हापुर के महाराजा #छत्रपति_साहूजी_महाराज ने 26 जुलाई 1902 में पिछड़े वर्ग से गरीबी दूर करने और राज्य प्रशासन में उन्हें उनकी हिस्सेदारी देने के लिए आरक्षण का प्रारम्भ किया था। #कोल्हापुर राज्य में पिछड़े वर्गों/समुदायों को नौकरियों में आरक्षण देने के लिए 1902 की अधिसूचना जारी की गयी थी। यह #अधिसूचना भारत में दलित वर्गों के कल्याण के लिए आरक्षण उपलब्ध कराने वाला पहला सरकारी आदेश था।

 📌 आरक्षण कोई #अनहोनी घटना नहीं है या एकदम से कोई नयी बात नहीं है। वंचित वर्ग को आरक्षण, भारत में ही नहीं, दुनियां के विभिन्न देशों में दिया जाता है, जिसका नाम और रूप भी भिन्न भिन्न हो सकता है। 
 #उदाहरण के लिए, #अमेरिका में आरक्षण को एफर्मेटिव एक्शन (Affirmative Action) कहा जाता है। Affirmative Action का मतलब समाज के "वर्ण " तथा "नस्लभेद" के शिकार लोगों के लिये सामाजिक समता का प्रावधान करना है। #स्वीडन में आरक्षण को जनरल अफर्मेटिव एक्शन कहा जाता है। इसी प्रकार #ब्राजील में आरक्षण को वेस्टीबुलर (westibular) के नाम से जाना जाता है। 
 #नार्वे के पीसीएल बोर्ड मे 40 % महिला आरक्षण है। इसी प्रकार दुनिया के विभिन्न देशों में भिन्न भिन्न नाम से आरक्षण दिया जाता है। 
अतः आरक्षण असमान्य नहीं, बल्कि बेहद सामान्य प्रणाली है। किंतु भारत में आरक्षण का विरोध क्यों होता है, इसे भी आप यहाँ आगे भलीभाँति समझ पायेंगे। 
 
👉आजाद भारत में #वास्तविक आरक्षण की पृष्ठभूमि और क्रियान्वयन:
 
गुलाम भारत में #बाबा_साहब_अम्बेडकर के अथक प्रयासों से #अछूतों को जो अधिकार दिया गया था, उसे #कम्यूनल_अवार्ड कहा जाता है। 16 अगस्त 1932 को ब्रिटिश प्रधानमंत्री #मैकडोनाल्ड ने कम्युनल अवार्ड की घोषणा की, जिसमें निम्नलिखित व्यवस्था की गई थी-

• प्रांतीय व्यवस्थापिका सभाओं की सदस्य संख्या बढ़ाकर दोगुनी कर दी गई गयी।

• अल्पसंख्यक विशेष सीटों वाले संप्रदाय की संख्या बढ़ा दी गई, जिसमें मुसलमानों, सिखों, दलितों, पिछड़ी जातियों, भारतीय ईसाईयों, एंग्लो इंडियनों को रखा गया।

• अल्पसंख्यक के लिए अलग निर्वाचन की व्यवस्था की गई।

• दलितों को हिंदुओं से अलग मानकर उनके लिए भी #पृथक_निर्वाचन_तथा_प्रतिनिधित्व_का अधिकार दिया गया।

• स्त्रियों के लिए भी कुछ स्थान आरक्षित किए गए।

कम्युनल अवार्ड के द्वारा अंग्रेजी शासन ने दलितों (व अल्पसंख्यकों )के लिए भी प्रतिनिधित्व का अधिकार देने का प्रावधान किया था, जो की डॉ. बी.आर. अम्बेडकर जी के प्रयासों का नतीजा था, जिसका विरोध हिंदुओं ने किया, जो अल्पसंख्यकों के प्रतिनिधित्व को तो स्वीकार कर सकते थे, पर दलितों को अधिकार देना नहीं, क्योंकि वो उन्हें अपना खानदानी गुलाम समझते थे, और इस मानसिकता से आज भी कई हिन्दू उभर नहीं पा रहे हैं।

वास्तव में कम्युनल अवार्ड से दलितों को स्वंतत्र राजनैतिक अधिकार प्राप्त हुए थे जिससे वे अपने प्रतिनिधि स्वयं चुनने के लिए सक्षम हो गए थे और वे उनकी आवाज़ बन सकते थे। इस के साथ ही #दोहरे_वोट_के_अधिकार_के_कारण_सामान्य_निर्वाचन_क्षेत्र_में_सवर्ण_हिन्दू _भी _उन_पर निर्भर_रहते और दलितों को नाराज़ करने की हिम्मत नहीं करते. इस से हिन्दू समाज में एक नया समीकरण बन सकता था #जो_दलित_मुक्ति_का_रास्ता_प्रशस्त_करता! परन्तु गाँधी जी ने हिन्दू समाज और हिन्दू धर्म के विघटित होने की झूठी दुहाई दे कर तथा आमरण अनशन का अनैतिक हथकंडा अपना कर दलितों की राजनीतिक स्वतंत्रता का हनन कर लिया। जिस कारण दलित सवर्णों के फिर से राजनीतिक गुलाम बन गए. 
#गांधीजी 4 जनवरी 1932 से यरवदा जेल में ही थे।उन्होंने वहीं से इस कम्युनल अवार्ड के विरोध में #आमरण_अनशन शुरू कर दिया।

अंत में बाबा साहब अम्बेडकर और गांधी जी के बीच 24 सितम्बर 1932 को एक #समझौता हुआ जिसे #पूना_पैक्ट कहते हैं। इस पैक्ट के अनुसार कम्युनल अवार्ड को निरस्त कर दिया गया। 

अर्थात जो अधिकार बाबा साहब ने तीनों #गोलमेज़ सम्मेलन में जाकर (कम्यूनल अवार्ड के रूप में) #अछूतों के लिए हासिल किया था, उसे बाबा साहब अम्बेडकर को #गाँधीजी के जान देने की सनकी हठ के कारण छोड़ना पड़ा। 
यहीं से आज के आरक्षण का जन्म हुआ। 
कम्यूनल अवार्ड छोड़ने के बदले में प्रांतीय विधानमंडल में दलितों के लिए #71 के स्थान पर #147 सीट #आरक्षित कर दिया गया। केंद्रीय विधानमंडल में भी #18% सीट दलितों के लिए आरक्षित कर दिया गया।
इस पैक्ट के द्वारा शिक्षा बजट का कुछ भाग भी दलितों के लिए #आरक्षित किया गया और #सरकारी_नौकरियों में बिना किसी भेदभाव के दलित वर्ग के लोगों की भर्ती को सुनिश्चित किया। इस आरक्षण रूपी समझौते पर #हस्ताक्षर करके बाबासाहब ने गांधी जी को जीवनदान दिया।

अब आप समझ गये होंगे कि आरक्षण खैरात या भीख नहीं है। यह दलितों के #पृथक_निर्वाचन_के_अधिकार_को_छोड़ने के प्रतिफल के रूप में था।

यह #प्रतिफल भी नहीं कहा जाना चाहिए,वास्तव में, यह तो रोते हुए बच्चे के हाथ में से 100 का नोट छीन कर 1 रुपये मूल्य की कैण्डी पकड़ाने के समान है।
 
कम्यूनल अवार्ड में जो पृथक निर्वाचन का अधिकार मिला था वह #सोना था तो उसे छोड़ने के बदले जो आरक्षण मिला वह #पीतल है।

✅इस आरक्षण को भी आज तक सही तरीके से लागू नहीं किया जा सका है। यह आज भी आधा अधूरा ही है। इसका एक उदाहरण, उत्तर प्रदेश में 2021 में प्राथमिक विद्यालयों में 69000 शिक्षकों की भर्ती में पिछड़ा वर्ग की 6000 आरक्षित सीटों से उसे वंचित कर देना है। 

📌 आरक्षण का #उद्देश्य
 
#यह सही है कि संविधान में आरक्षण की व्यवस्था 10 वर्षों के लिए की गई थी, किंतु यह भी सही है कि आरक्षण का उद्देश्य आज तक पूरा नहीं हुआ।

🔥यदि आरक्षण का मंतव्य/उद्देश्य पूरा हो गया है तो क्या आप बता सकते हैं कि आज तक भारत का #प्रधानमंत्री कोई अनुसूचित जाति या जनजाति का क्यों नहीं बना? 
 (मैं #राष्ट्रपति पद की बात नहीं कर रहा हूँ।भारत में शासन की सर्वोच्च शक्ति प्रधानमंत्री पद में निहित होती है, न कि राष्ट्रपति के पद में।)
 
👉आजाद भारत के #प्रथम_आम_चुनाव में, बिना आरक्षण के कोई भी दलित, #संसद में या #विधानसभाओं में प्रवेश नहीं कर पाया था। वही स्तिथि आज 70 साल से आरक्षण के जारी रहने के बाद भी है।

 🔥आप कितने ऐसे दलित सांसद या विधायक का नाम बता सकते हैं, जो किसी सामान्य सीट से जीतकर आये हों? आप हैरान होंगे कि यह संख्या शायद #शून्य या शून्य के आसपास ही होगी।
 
अब आप बतायें, क्या आरक्षण का #उद्देश्य आपको पूरा होते हुये दिखाई दे रहा है?(उत्तर आप पर छोड़ रहा हूँ) 

 👉 आरक्षण #जाति आधारित क्यों है ❓
 
 भारत में सामाजिक विभाजन #जाति आधारित है। छुआछूत जाति आधारित है। #दलित के दलित होने का कारण जाति ही है। दलित की #गरीबी और संसाधन विहीनता का सबसे बड़ा कारण जातिवाद ही है। जाति एक वर्ग है, इसलिए विभिन्न वर्गों को आरक्षण देने के लिए जाति को आधार बनाया ।आरक्षण जातिवाद के कारण उत्पन्न विषमता की भरपाई तथा लोकतांत्रिक मूल्यों को अमली जामा पहनाने का छोटा सा प्रयास है। 
 अगर शोषित और वंचित जनसंख्या के प्रतिशत को देखा जाये, तो उसके हिसाब से यह प्रयास बहुत ही न्यून है। #आरक्षण का सही #अनुपात में क्रियान्वयन तो हो नहीं पा रहा है, अलबत्ता उसे खत्म करने की मांग उठती रहती है। 
 
आपको ज्ञात तो हो ही गया कि आरक्षण का मुद्दा समाज में व्याप्त जातिवादी अत्याचारों और शोषण के कारण उत्पन्न गहरे घावों पर मलहम लगाने का प्रयास मात्र है। 
  #सदियों_से_दबे_कुचले_वर्गों के लिए आरक्षण अपने आप में  मंजिल नहीं, बल्कि मंजिल की ओर बढ़ने के लिए #डूबते_को_तिनके_का_सहारा है। 
 
 ☀️आरक्षण का #स्वरूप एवं #आवश्यकता -
 
 आरक्षण की जरूरत इसलिए पड़ी कि दबे कुचले वर्ग(जातियों) का जो हक, सबल वर्गों (जातियों) द्वारा अतिक्रमित है, उसको वह प्राप्त कर सके। जैसे एक 10 साल का बच्चा एक 4 साल के बच्चे का खिलौना छीन लेता है,और उसका पिता फिर उस बड़े बालक से (छोटे बालक का) खिलौना छीन कर वापस करवा देता है, बस आरक्षण का स्वरूप यही है।छोटे बच्चे का अधिकार, छोटे बच्चे को लौटा दिया गया। इसमें बड़े बच्चे का क्या बलिदान है? छोटे बच्चे का खिलौना छोटे बच्चे को दे दिया गया तो यह बड़े बच्चे के अधिकार का हनन कहलायेगा क्या,
यह छोटे बच्चे के लिए भीख है  या खैरात? 

 आरक्षण को ऐसे समझिये। आपने भोजन करते समय यह ध्यान दिया होगा कि कुछ 2, 4 कुत्तों का झुंड आ जाता है, आप रोटी का टुकड़ा फेंकते हैं। आप क्या देखते हैं? उन दो, चार कुत्तों में से जो सबसे सबल होता है, वह उस रोटी के टुकड़े पर हक जमा लेता है और सभी की पहुंच उस रोटी तक रोक कर उस रोटी को खा लेता है। 
 आप दोबारा कमजोर या बीमार कुत्ते की तरफ रोटी का टुकड़ा फेंकते हैं लेकिन यह क्या? 
 वह सबल कुत्ता फिर उस रोटी को अपने बल के दम पर झपट्टा मार लेता है। आप रोटी फेंकते जाते हैं लेकिन कोई भी कमजोर कुत्ता उस रोटी के टुकड़े को नहीं पाता है और वह सबल कुत्ता उसे खाता जाता है। सबल कुत्ता खाकर मोटा होता जाता है और कमजोर तथा बीमार कुत्ते बिना खाये मर रहे होते हैं। 
  क्या आपको नहीं लगता कि किसी ऐसे व्यवस्था की जरूरत है जो रोटी के वितरण को सभी कुत्तों में समान रूप से सुनिश्चित कर सके। इस व्यवस्था का नाम ही आरक्षण होगा।
 
💪आरक्षित का प्रतिद्वंदी-

यदि कोई व्यक्ति आरक्षण प्राप्त कर लेता है तो,वह अपने वर्ग के लिए प्रतिनिधि है, न कि प्रतिद्वंदी। किन्तु बड़ी ही खूबसूरती से वे लोग जिन्होंने वास्तव में (आरक्षित वर्ग का ) हिस्सा खाया है,उस आरक्षण प्राप्त व्यक्ति को ही उसके वर्ग के लिए प्रतिद्वंदी बना दे रहे हैं। मानो आरक्षण प्राप्त करके उसने अपने ही समाज के साथ अन्याय कर दिया हो। उसे अपने वर्ग के बीच एक अपराधी की तरह पेश किया जा रहा है।

यदि एक व्यक्ति आरक्षण ले रहा है, तो उसकी लड़ाई अपने वर्ग के बीच नहीं है। उसकी लड़ाई सबल वर्ग के साथ है अर्थात एक निर्बल व्यक्ति को जो आरक्षण मिल रहा है वह उसके निर्बल वर्ग के लोगों के हिस्से को काटकर नहीं दिया जा रहा है, वह आरक्षण, (उसके अधिकार को ) सबल वर्ग के द्वारा जो हथिया लिया गया था, उनसे वापस ले करके उसे दिया जा रहा है। 
 यह कहना कि आरक्षण अगर कोई व्यक्ति छोड़ देता है तो उसी वर्ग के किसी दूसरे व्यक्ति को उसका लाभ मिलेगा, सैद्धांतिक और व्यावहारिक, दोनों तरह से गलत है, क्योंकि उसकी या उसके वर्ग की लड़ाई उनके बीच है ही नहीं, उनकी लड़ाई सबल वर्ग के साथ है अर्थात (निर्बल वर्ग के अधिकार को जिसने छीना है)उनसे अधिकार वापस कर निर्बल वर्ग को देने की प्रक्रिया आरक्षण है, तो किस प्रकार से आरक्षण प्राप्त व्यक्ति अपने वर्ग के लिए अहितकर हुआ या प्रतिद्वंदी हुआ। 
 वह तो आरक्षण प्राप्त करके (सबल वर्ग से अपना अधिकार छीन करके ) अपने वर्ग के उत्थान और विकास में योगदान दे रहा है। एक प्रकार से आरक्षण प्राप्त करके वह व्यक्ति अपने वर्ग में मजबूती ला रहा है।
 कल्पना कीजिये की एक सबल और एक निर्बल वर्ग है। निर्बल वर्ग में कोई आरक्षित नहीं है। अर्थात कोई मजबूत नहीं है। क्या वह सबल वर्ग का मुकाबला कर पायेगा? 
 अब कल्पना कीजिये कि निर्बल वर्ग में एक व्यक्ति आरक्षण पा जाता है तो उस व्यक्ति से निर्बल वर्ग में मजबूती आयेगी कि नहीं आयेगी। बस कुछ लोग यही मजबूती नहीं चाहते, इसी लिए आरक्षण का विरोध करते हैं। 
 

🤔आपके हिस्से की रोटी🍔किसने खायी ❓

आरक्षण का वास्तविक स्वरूप और आवश्यकता समझने में यह उदाहरण आपकी मदद करेगा,

उदाहरण देखिए -
(मान लीजिए) दो भाई हैं "अ" और "ब", अ के परिवार में 10 लोग हैं, ब के परिवार में 90 लोग हैं।  उनके बीच रोटी की एक टोकरी रख दी जाती है जिसमें 100 रोटियाँ हैं। इन दोनों लोगों के परिवार को उनकी संख्या के आधार पर रोटी लेना है।
 "अ" का परिवार चालाक है। वह "ब" परिवार को कहता है, चलिए सभी लोग स्नान करने के उपरांत भोजन करेंगे। 
 "अ" परिवार पहले स्नान कर लेता है और "ब" से कहता है कि आप लोग स्नान कर आइये, तब तक हम भोजन परोस रहे हैं।जब ब परिवार स्नान कर लौटता है तो, देखता है कि कहीं भोजन परोसा नहीं गया है। पूछने पर अ परिवार बताता है कि हमें बहुत भूख लगी थी, इसलिए हम लोग भोजन करने लगे। अतः अब आप लोग स्वयं भोजन निकाल कर खा लें। हम आराम करने चलते हैं। 
 
 परिवार "ब" ने देखा कि टोकरी में सिर्फ 50 रोटियाँ ही बची थीं, जबकि इन्हें 90 होना चाहिए था। परिवार "अ" के लोगों ने 5 -5 रोटियाँ खाई थीं, जबकि परिवार "ब" के प्रत्येक सदस्य को आधी रोटी भी कायदे से नहीं मिल रही थी। बेचारा ब परिवार आधा/टुक्का रोटी खाकर ही किसी प्रकार काम चलाता है!
 
 समाज में भी यही हो रहा है, 10%संख्या वाला समाज 90% समाज के हिस्से को खा जाता है।अगर 10% संख्या वाले परिवार को 10% रोटियाँ और 90% संख्या वाले को 90% रोटियाँ देने की व्यवस्था कर दी जाये, तो यही व्यवस्था आरक्षण कहलायेगी, आप अपनी भाषा में चाहे जो नाम इसे दे सकते हैं।
  अब आप समझ गये होंगे कि एक #वर्ग, दूसरे वर्ग की रोटियाँ न खा जाये, और इस कारण किसी एक वर्ग को भूखा न रहना पड़ जाये, इस हेतु ही आरक्षण का क्रियान्वयन जरूरी हुआ। 
  
अब थोड़ा पुनः विचार करते हैं। मान लीजिए "अ" परिवार के लोगों ने जब "ब" परिवार के हिस्से की 40 रोटियाँ (10 अपनी सम्मिलित करने पर 50रोटियाँ ) खायी थी, तब रोटी के लिए परिवार ब के लोगों को किससे लड़ना चाहिए,अपने परिवार से या उस "अ" परिवार से जिसने उनकी रोटियाँ खायी थी?

✅आपका हिस्सा जिसने खाया आप उससे लड़ेंगे

अब आपको ज्ञात हो गया होगा कि आपके हिस्से की रोटी किसने खायी और रोटियों के लिए किससे लड़ना है?
अगर रोटियों के लिए आप अपने ही परिवार से लड़ते हैं और परिवार"अ"को दोषमुक्त देखते हैं तो यह आपके द्वारा आपके दुश्मन को पहचानने में आपकी महान विफलता है साथ ही, परिवार अ का परिवार ब में भुखमरी के कारण "फूट" डालने का मंतव्य भी पूरा हो जाता है। 
परिवार ब, परिवार अ का सरल शिकार हो जायेगा, क्योंकि ब के लोग ब से ही लड़ रहे हैं, अ से नहीं। ऐसी दशा में चूँकि ब जागरुक नहीं रहेगा, वह लड़ाई में व्यस्त रहेगा, अतः अ परिवार को ब की और अधिक रोटियाँ निगल जाने का सुनहरा अवसर प्राप्त होगा।

परिवार अ इतना चालाक है कि वह परिवार ब के सदस्यों को स्वनेतृत्व के प्रति यह कहकर उकसाता है कि देखो इतनी ज्यादा रोटियाँ (वास्तव में 50 ही) होने के बाद भी तुम भूखे हो। इनके भाई भूखे मर रहे हैं और ये खाकर मर रहे हैं।
लेकिन आपने देखा कि रोटी किसी को भी भरपेट नहीं मिली, सभी भूख से व्याकुल हो रहे हैं । आप बतायें कि परिवार ब के सदस्यों को अपने हिस्से का हिसाब अपने परिवार के लोगों से मांगना चाहिए या परिवार अ के लोगों से?
👉निश्चित रूप से "ब" के लोग "अ" से अपने हिस्से का हिसाब माँगेंगे। 

लेकिन यहाँ तो जिसने आपका हिस्सा दबाया हुआ है, उससे आप हिसाब ही नहीं माँग रहे हैं। ब के लोग आपस में ही एक दूसरे से हिसाब माँग रहे हैं।
अब आप समझ गये होंगे कि आरक्षण की लड़ाई परिवार अ और परिवार ब के बीच है, न कि परिवार ब के सदस्यों के ही बीच।
किन्तु चालबाज़ अ के लोगों ने बड़ी ही चतुराई से आरक्षण की लड़ाई को ➖'ब बनाम ब'➖ कर दिया है, जबकि यह 👉'अ बनाम ब'👈 की लड़ाई है। 

🇳🇪आरक्षण को आर्थिक आधार पर करने की माँग क्यों हो रही है❓

आरक्षण में आर्थिक आधार ❌ मुद्दा ही नहीं है।

 असली मुद्दा जाति और उससे उपजे #शोषण का है। इस असली मुद्दे को जानबूझकर आर्थिक आधार पर स्तिथ करने का सफल प्रयास किया जा रहा है। 
एक जातिवादी, आरक्षण का विरोध तो करता है, किन्तु जातीय भेदभाव और उससे उत्पन्न गरीबी अत्याचार, शोषण का रत्ती भर भी विरोध नहीं करता।
➡️क्या कभी आपने आरक्षण विरोधी को जाति व्यवस्था का विरोध करते हुये देखा है❓

आरक्षण सामाजिक मुद्दा है। यदि आरक्षण एक आर्थिक मुद्दा होता तो एक दलित द्वारा आरक्षण प्राप्त करते ही वह सवर्ण बन जाता।
इतना ही नहीं उस दलित के आरक्षण ले लेने के बाद भी उसका बच्चा दलित ही पैदा होता है। जाति जन्म आधारित है। वह बच्चे के जन्म लेते ही उसे समाज द्वारा प्रदान कर दी जाती है। अतः जब तक जाति रहेगी,जाति आधारित शोषण रहेगा, इस प्रकार आरक्षण की आवश्यकता बनी रहेगी, आरक्षण का औचित्य स्वयंसिद्ध हो जाता है। आरक्षण को इसीलिए सीधे सीधे समाप्त करने में दिक्कत हो रही है।अतः इसे समाप्त करने योग्य बनाने के लिए ही पहले इसे आर्थिक आधार देने का प्रयास किया जा रहा है। आर्थिक आधार पाते ही आरक्षण समाप्त हो सकने की लोचनीयता प्राप्त कर लेगा। उसके बाद क्या होगा आप जानते हैं। आरक्षण पूरी तरह से समाप्त हो जायेगा। जाति व्यवस्था बनी रहेगी।

"आरक्षण को छोड़ने" का कंसेप्ट इसीलिए किसी स्तर पर पैदा करने का प्रयास किया जा रहा है ताकि इसे समाप्त करने का आधार मिले। चूँकि जाति तो समाप्त नहीं हो सकती और आरक्षण इन्हें समाप्त करना है तो इसे जाति से हटाकर आर्थिक आधार पर करना होगा। आरक्षित का अपने वर्ग के लिए आरक्षण छोड़ने की पैरवी करना इसी षडयंत्र का भाग है कि किसी न किसी स्तर पर पहले आरक्षण छोड़ने हटाने की बात तो हो। 

✳️इसे एक और दिलचस्प उदाहरण से और बेहतर ढँग से समझा जा सकता है।
 मान लीजिए एक पैर से विकलांग कोई व्यक्ति है। उसे विकलांग कोटा के तहत आरक्षण का लाभ मिल जाता है। उस व्यक्ति को एक लड़की पैदा होती है जो विकलांग नहीं है और पूर्णतः स्वस्थ है। 

क्या उसे भी विकलांग कोटे के तहत आरक्षण का लाभ मिलेगा, जैसा कि उसके विकलांग पिता ने पाया था? 
उत्तर होगा "नहीं।"
अब दूसरे प्रश्न का उत्तर दीजिए-
👉मान लीजिए उस विकलांग व्यक्ति की बच्ची भी (दुर्भाग्य से) विकलांग पैदा होती है तो क्या उसे आरक्षण देने से इस आधार पर मना किया जायेगा कि उसके पिता ने आरक्षण का लाभ ले लिया है तो उसे यह आरक्षण नहीं मिलेगा?
क्या यह वास्तव में उस विकलांग बच्ची के साथ नैसर्गिक न्याय होगा?
नहीं न।
जिस प्रकार, एक विकलांग का बच्चा, विकलांग नहीं पैदा होता तो वह विकलांग कोटे के आरक्षण का हकदार नहीं होता है, उसी प्रकार यदि एक दलित का बच्चा दलित पैदा नहीं होता, तो वह भी आरक्षण का हकदार नहीं होता।

ठीक इसी प्रकार जब एक अनु जाति/जन जाति/पिछड़ी जाति का कोई व्यक्ति आरक्षण का लाभ ले लेता है तो क्या उसके बच्चे सवर्ण बन जाते हैं? अर्थात क्या वे जातीय भेदभाव और उत्पीड़न से मुक्त हो जाते हैं? 

एक दलित के आरक्षण प्राप्त कर लेने के बाद भी, उसके बच्चे दलित ही रहते हैं। अर्थात वे फिर भी जातीय प्रताड़ना से मुक्त नहीं हो पाते हैं। 
आरक्षण जाति व्यवस्था को समाप्त करने वाला महासागर नहीं है, बल्कि उसकी धारा को मोड़ने वाला बांध मात्र है। 
जिस प्रकार से टी.बी. की बीमारी में हल्का बुखार रहता है और उसमें बुखार की दवा पैरासिटामाल दिया जाये तो बुखार तो तत्काल में ठीक हो सकता है, किन्तु टी. बी. नहीं ठीक हो सकता, उसी प्रकार से आरक्षण से दलित की आर्थिक स्तिथि में तत्काल कुछ फायदा तो होता है, लेकिन उसकी दीर्घकालिक (जातिवाद की) समस्या बनी रहती है। आरक्षण पैरासिटामाल है, जिससे सिर्फ बुखार जाता है, टी. बी. नहीं। टी. बी. से मुक्ति तो MDT दवा को खाने से ही मिलेगी, वो भी लगातार  कई महीने तक।
💉MDT दवा है- जाति व्यवस्था की समाप्ति। 

एक सच्चा आरक्षण विरोधी हो ही नहीं सकता। सच्चा आरक्षण विरोधी बनने के लिए जाति विरोधी होना होगा, गोया, जाति खुद आरक्षण विरोधियों के लिए एक आरक्षण है।
 यदि सचमुच में कोई आरक्षण मिटाने के प्रति गंभीर होता तो वह जाति को मिटाने पर बल देता। सोचिये आरक्षण इतना ही विनाशकारी होता तो, जिस जाति के कारण वह उपजा है, वह जाति कितनी विनाशकारी होगी। तो भाइयों और बहनों, जाति उन्मूलन का आधार बनता है कि नहीं बनता? टी बी ज्यादा घातक है कि बुखार? आप बुखार को समाप्त करना चाहते हैं तो पहले टी बी को समाप्त कीजिए, बुखार अपने आप समाप्त हो जायेगा। 
जाति व्यवस्था के कारण आरक्षण है, न कि आरक्षण के कारण जाति। 
पेड़ की जड़ के कारण शाखाएँ हैं, शाखाओं के कारण जड़ नहीं। 
यदि शाखाओं को काटेगे तो शाखाएँ फिर से उग आयेंगी। शाखाओं को मिटाना चाहते हो तो जड़ को समाप्त करना होगा। 

🚫जाति_व्यवस्था को कायम रखते हुए आरक्षण को समाप्त करने की बात करना, उसी तरह है, जैसे टी बी का इलाज न करते हुये बुखार के लिए पैरासिटामाल देना। 
आरक्षण विरोधियों, यदि आप में जरा भी नैतिकता है, तो आज ही अपने जाति को त्याग दो। अपने जातीय लाभ (एक प्रकार का आरक्षण) को छोड़ दो। आप देखेंगे कि जाति व्यवस्था समाप्त होते ही, आरक्षण समाप्त हो गया है।

लेकिन ये आप से नहीं होगा, आप आरक्षण समाप्त करना चाहते हैं, किन्तु जाति नहीं। यदि जाति समाप्त हो गई तो फिर कौन आपको, देवता, पूजनीय, ठाकुर साहब, बाउ साहब, फलाँ साहब, ढिंका साहब, महाराज जी, आदि कहेगा। अतः आप अपना सदियों से चला आ रहा आरक्षण तो बरकरार रखना चाहते हैं, किन्तु दलितों को जो आधा अधूरा अधिकार संविधान की बदौलत मिला है, उसे आप समाप्त करना चाहते हैं।  

अब तो समझ गये होंगे, आरक्षण अपने आप में बीमारी नहीं है, जिस प्रकार बुखार अपने आप में बीमारी नहीं वह बीमारी का लक्षण है। (मान लीजिए बुखार टी बी का लक्षण है)। उसी प्रकार आरक्षण बीमारी नहीं बल्कि जाति व्यवस्था की बीमारी का लक्षण है।
बीमारी है तो लक्षण है, बीमारी नहीं तो लक्षण नहीं।बीमारी को समाप्त करो लक्षण अपने आप खत्म।

एक जातिवादी, जाति व्यवस्था का विरोध नहीं करता लेकिन जाति आधारित आरक्षण का विरोध करता है! 
   यह तो वही हाल हो गया कि गुड़ खाये लेकिन गुलगुले से परहेज। 
 हे आरक्षण विरोधियों!  तुम्हें आरक्षण से मिर्च लग जाती है लेकिन जाति इतना प्रिय क्यों है? 
क्या कारण है कि भारत में "#जाति_छोड़ो_आन्दोलन" आज तक किसी भी आरक्षण विरोधी के द्वारा नहीं चलाया गया। इसका कारण है भारतीय समाज द्वारा जाति व्यवस्था की 💯%सहमति। 
जाति व्यवस्था पर सहमति का अर्थ है- इसके कारण उत्पन्न अनवरत शोषण पर मुहर लगाना। 
आरक्षण:भाग-1
क्रमशः भाग 2 पढ़ने के लिए इस लिंक पर जायें 

https://m.facebook.com/groups/211860804135522/permalink/730491622272435/?mibext

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